आखिर, कितना जानते हैं हम?





दर्शनशास्त्र पढ़ने वाले जानते हैं कि पाइथागोरस, जिन्हें सामान्य तौर पर उनके पाइथागोरस-प्रमेय के कारण गणित में ही पढ़ा जाता है, इस संसार के प्रथम स्वघोषित दार्शनिक थे। पाइथागोरस ने इंसानों को चारित्रिक रूप से तीन श्रेणियों में बांटा है। वे कहते हैं कि यह संसार खेल का एक बड़ा मैदान है - जिसमें प्रथम श्रेणी के लोग केवल 'खेल' खेलते हैं - अपनी खुशी के लिए, अपने यश के लिए। ये असल में खिलाड़ी होते हैं। द्वितीय श्रेणी में वे लोग होते हैं जो अपने वाणिज्यिक लाभ के लिए इन खिलाड़ियों और इन खेलों पर निवेश करते हैं और मुनाफा कमाते हैं - ये शुद्ध व्यापारी होते हैं। तृतीय श्रेणी में आते हैं - दर्शक, जो ना तो खेलते हैं और ना ही खेल से किसी प्रकार का मुनाफा प्राप्त करते हैं - उन्हें सिर्फ खेल देखकर आनंद की प्राप्ति होती है और वे उसी को विषय बनाकर उस पर चर्चा परिचर्चा करते रहते हैं। पाइथागोरस ने दर्शनशास्त्रियों को इस तीसरी श्रेणी में ही रखा है।


अब आते हैं असल मुद्दे पर; कि आज के समय में, जब हम पर हर तरफ से सूचनाओं और ज्ञान की बारिश हो रही है तो ऐसे में कैसे खुद को सहज रखा जाए - बिना किसी विचारधारा से प्रभावित हुए। ऊपर पाइथागोरस का वक्तव्य इसीलिए दिया गया है ताकि आप स्वयं को और अपने आसपास के लोगों को चारित्रिक रूप से इतना अवश्य जान सके कि कौन 'खेल' खेल रहा है, कौन मुनाफा कमा रहा है और कौन सिर्फ बातें बना रहा है।

जीवन में सहज और सरल होने के लिए जरूरी है कि आप इस तीसरी श्रेणी के लोगों से दूर ही रहे। इंसानों की सहजता का, सिंपलीसिटी का जितना नुकसान इन दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों ने किया है उतना शायद ही किसी ने किया हो। इनका बस एक ही काम है बैठे-बैठे हर बात का मतलब निकालते रहना और छोटी-छोटी चीजों के आनंद और उसके रस को नष्ट कर देना। इन्हें खेल खेलने या उसके नफा नुकसान से कोई मतलब नहीं होता लेकिन उसका विश्लेषण और उसकी आलोचना ये बखूबी करते हैं। यश, आनंद और मुनाफा तो उन्हें प्राप्त हुआ जो सीधे तौर पर इस खेल से जुड़े हुए हैं, बाकी लोगों को प्राप्त हुई केवल बनी-बनाई बातें - जिनका आपके जीवन से कोई लेना देना नहीं होता। 

मनोवैज्ञानिक कभी किसी के चेहरे की व्याख्या करते हैं तो कभी किसे के व्यवहार का विश्लेषण - सब बकवास है। इस तरह के विश्लेषण से मनोवैज्ञानिकों को भले ही मजा आता हो लेकिन उससे प्राप्त खोखला निष्कर्ष जीवन के रहस्य और रोमांच को खत्म कर देता है। जीवन जीने के लिए हमें इसकी जरूरत भी नहीं है। अगर गुलाब का फूल देखकर हमें अच्छा लगा - तो अच्छा लगा। आप सिर्फ गुलाब के फूल होने और उसके सुगंधित होने का आनंद लें, कम से कम तब तक जब तक कि आप वनस्पति-विज्ञानिक ना हो।
आपका जिज्ञासु होना सिर्फ तब जरूरी है जबकि आपके जीवन में उस विषय का जुड़ाव हो या आप उसे आत्मसात कर उस विधा के खिलाड़ी बनना चाहते हो। आप गुलाब की संरचना के बारे में जान कर भी क्या कर लेंगे। गुलाब को सिर्फ देखिए और उस का आनंद लीजिए। प्रश्न करके अगर आपने गुलाब के अस्तित्व या उसकी संरचना को जान भी लिया - तो फिर आप उसके कलात्मक पक्ष से वंचित अवश्य रह जाएंगे। इसलिए हर बात पर बाल की खाल निकालना सही नहीं होता।

खुद को सरल कर लीजिए। हर चीज का आनंद लीजिए - भोजन के हर निवाले का रस लीजिए - पानी की हर घूंट को सहर्ष पीजिए - जिंदगी ज्यादा खुशहाल लगेगी। 
पुराने समय से ही हमारे भारतीय साधुओं और महात्माओं ने जिंदगी को ज्यादा कठोर बना रखा है। उन्होंने इस जीवन से परे किसी अदृश्य सत्ता को ढूंढने के चक्कर में हमें रसविहीन कर दिया। इस जड़ता को खत्म कीजिए। छोड़िए हर उस टूटी-फूटी विचारधारा को, जो आपको जिंदगी जीने से रोकती है। इस धरती की हर खूबसूरत चीज को और प्रकृति को 'ईश्वर का उपहार' मान कर उस का आनंद लीजिए, उस का जश्न मनाइए। 

इस सवाल में मत उलझिए कि कौन सी रीति सही है या कौन से रिवाज गलत है। कोई भी रीति रिवाज सही-गलत नहीं है, सब आनंद की बातें हैं। आपको अच्छा लगता है - होली मनाइए, रमजान मनाइए, दीप जलाइए। इसके लिए किसी दर्शनशास्त्री या मनोवैज्ञानिक को मत पढ़िए, उनसे पूछने की जरूरत ही क्या है। आप बस उत्सव मनाइए जिंदगी का - उस पर दार्शनिक व्याख्याएं मत थोपिये - उसे सरल और नैसर्गिक रहने दीजिए - हर तरह की विचारधाराओं से मुक्त!

ओशो कहते हैं -
"सिर पर है व्यर्थ का बोझ
बोझ को क्रमशः कम करो 
और स्मरण रखना कि 
विचार पत्थरों से भी भारी होते हैं"

© Rajan Jaiswal